मार्किट में DeMo और मीडिया में मेरा Demo
मैं पहले ही बता दूँ कि मैं
ये अपना ब्लाग तब लिख रहा हूँ जब मुझे आफिस से “ब्रेक-अप” किए पूरा एक महीना हो चुका है और नोटबंदी के
महान कदम (जैसा फैलाया जा रहा है) को तीन महीने। मेरा लिए पहली बार आफिस ज्वाइन करने की
तारीख हमेशा यादगार रहेगी : 8 नवम्बर 2016. जी सही पहचाना। वही आठ तारीख और वही शाम आठ बजे का समय जब
सभी “भाईयों और बहनों” के लिए 500 और 1000 के नोट बंद कर दिए गए थे। लेकिन मैं
लक्की निकला। क्योंकि इन दो महीने (मेरा ट्रेनिंग पिरीयड), मोदी सरकार ने पूरी मीडिया इन्डस्ट्री को बिज़ी
रखा और चूँकी मेरा चैनल छोटा था तो मुझे ज़्यादा काम करने को मिला।
नोटबंदी के फैसले के अगले
दो दिन बाद से रोज़ ही कोई-न-कोई चालाक नागरिक नोट बदलवाने का शोर्टकट ढूँढ लेता
और रोज़ ही कभी सरकार के
आर्थिक मामलों के सलाहकार, कभी सरकार के वित्त मामलों के सलाहकार, तो कभी ख़ुद
वित्त मंत्री प्रेसवार्ता कर नई नोटिफिकेशन जारी कर देते। यही ड्रामा 50 दिनों में 74
बार हुआ। और यही हमारी खबर बन जाती। लेकिन इसी बीच आम नागरिक परेशान और हताश था।
कभी कतारों की वजह से तो कभी कंफयूसन की वजह से। और कहीं-न-कहीं एक पत्रकार भी।
अगर लोगों की परेशानी दिखाए तो “ऐन्टी-नैशनल, गद्धार, कांग्रेसी, ऐन्टी-मोदी” जैसी गालियाँ खाए और अगर न
दिखाए तो अपने ईमान को कैसे समझाए ?
मुझे याद है इसी बीच 14
दिसंबर को मेरे कालेज में तीन दिवसीय फेस्ट का पहला दिन था और शुरूआत होनी थी
वाद-विवाद प्रतियोगिता से। चूँकी मैं अपने कालेज में वाद-विवाद कल्ब (फ्राईडे डिबेट कल्ब) का फांउडर रहाँ हूँ, तो मैं
इसमें भाग लेने के लिए आमन्त्रित किया गया। विष्य था: नोटबंदी। मैंने बिना
हिचकिचाए इसमें हिस्सा लेने का फैसला किया (आफिस में झूठ बोल कर छुट्टी ली) और नोटबंदी के खिलाफ अपनी
बात रखने का मन बनाया। समय था 12 बजे का लेकिन मैं आधा घण्टा लेट हुआ नोटबंदी की
वजह से ही। कैसे ? मेट्रो कार्ड में माईनस में बैलेन्स, जेब में पैसे नही,
एस्कोट्रस मुजेसर मेट्रो स्टेशन पर पी.ओ.एस. मशीन नही, इंटरनेट न होने की वजह से
पेटीएम नही और टोकन के लिए लंबी कतार। ख़ैर मैं अपनी इस बुरी घटना को प्रतियोगिता
में तो नही रख पाया लेकिन मैंने 17 प्रतियोगियों में दूसरा स्थान प्राप्त किया।
बात वापिस आफिस की। नोटबंदी
से तो न्यूज़रूम में होच-पोच मची ही रहती थी लेकिन “समाजवादियों” ने भी कम तंग नही किया। ये भी रोज़ नए फैसले ले
कर आ जाते। “दंगल” तो परीवार में था लेकिन इसमें “गिता”(दंगल मूवी के अनुसार) बन कर अखिलेश भईया ही निकले।
बहरहाल इस नोटबंदी ने जहाँ
एक रिटायर्ड नागरिक को कतार में तो मेरे जैसे इन्टर्न को न्यूज़रूम की मज़ार बिज़ी
रखा। लेकिन इन दो महीनों में मुझे एक बात का जवाब ज़रूर मिल गया और वो भी एक बड़ी
पार्टी के नेता से कि “लोगों में फैसले के बाद गुस्सा ज़रूर है लेकिन कोई शिकायत क्यों
नही कर रहै है ?” जवाब कुछ इनट्रेसटिंग है: “वाट्सैप परोपेगैनडा”.
Let me narrate it first that I
am writing this blog at such a time when I have completed one month of
“break-up” with my office and three months of the great step (as it is
circulating) of demonetization. For me the first time joining date of office
would always be memorable: 8 November 2016. Yes, you got it. That same date and
that same time, when all old currency of 500 and 1000 was banned for all
“brothers and sisters” by PM Modi. But I was lucky. Because these two month (my
training period), the whole Media Industry was kept busy by the Modi Govt. and
perhaps rise in working hours, as I was working for a small channel and
apparently less number of employees.
Just after two days of DeMo,
everyday someone who is clever would find a shortcut to get his old currency
exchanged and everyday either Economic Advisor to govt., either financial
advisor or someday himself Finance Minister issues a new notification through a
Press Conference overtaking their last decision. This happened 74 times in 50
days. And this became our News. But
during this whole drama, the ordinary man was upset & disappointed. (Around
80 died). Either due to queues or due to confusion. And even a Journalist too.
If he/she reports about people’s trouble, he/she is labeled with
“anti-national, traitor, congress worker and anti-modi” but his/her Loyalty
doesn’t allow to not report this.
Amidst, I still remember
the date of 14 December, the first day of three day fest at my college and
inauguration was to be with Debate Competition. As I have been the founder of
debate club (Friday debate club) in my college, I was invited by the organizing
committee to take part in the debate. Supposedly, the topic was DeMo. Without
hesitating, I decided to speak *against* the step. Reporting time was 12 but I
reached half an hour late only due to DeMo. Why & How? Metro card with
Balance in minus, no cash, no POS at the metro station, no Paytm because of no
internet and a long queue at the token counter. Well, I couldn’t keep up my
this incident within the competition but I secured second position out of 17
candidates.
Now, back to office. Newsroom
was full of chaos due to DeMo but “Samajwadis” were equally responsible. They
too came in front of media daily with their new decisions. “Dangal” was within
the family but Akhilesh became the real “Gita” (acc. to movie Dangal.) Maybe they
too were frightened of DeMo only!
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